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“धर्म के खिलाफ मोर्चा खोलेगी“, यह वाक्य व्यवहारिक है। धर्म धी-धातु से बनता है। कोई भी इसका ठेकेदार नही हो सकता। सुप्रीम कोर्ट भी धर्म के मामले में अपने निर्णय लेने से बचता है। धर्म मौलिक अधिकारों से ऊपर ऊठकर है, इसलिए कोई परिषद् संविधान की मर्यादा में ही काम कर सकती है। यदि उसका अपना संविधान होगा तो उसकी सीमायें होंगी, जिसके अनुसार ही उसे काम करना है। स्वतन्त्र भारत में लोकतान्त्रिक व्यवस्था में रहते हुए संविधान व कानून का पालन शास्त्रीय आचार संहिता के अन्तर्गत आता है। शास्त्र एवं वर्ण आश्रम व्यवस्था के अनुसार ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास यें शास्त्र सम्मत है। धर्म शब्द की व्याख्या है तो पहले अपनी मर्यादाओं का पालन करें। कोई गृहस्थ व ब्रह्मचारी प्रश्न चिन्ह लगाने से पहले आत्म मन्थन करें। यदि कोई सन्यासी है और अद्वैत सिन्द्धान्त को मानता है तो वह किसी से भी माफी नही मांग सकता। ये प्रश्न उठाना ही हास्यास्पद है।
स्वामी कृष्णबोध आश्रम जी अपने आप को ज्योतिष पीठ का शंकरचार्य मानते थे और वें स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती जी के शिष्य नही थे और किसी भी पीठ से जुड़े नही थे। गोवर्धन पीठ पर जगद्गुरु शंकरचार्य निरंजनदेव तीर्थ जी विराजमान थे और उसी पीठ पर जगद्गुरु शंकरचार्य स्वामी निश्चलानन्द तीर्थ जी महाराज किसी पीठ से जुडे नहीं थे और न ही निरंजन देव तीर्थ जी के शिष्य थे। स्वामी स्वरूपानन्द जी अभिनव सच्चिदानन्द जी के शिष्य नही थे इसलिये सम्मानीय शिष्य परम्पराओं का कभी भी धर्म शास्त्र अनुसार मर्यादा नही रहा है क्योंकि यह देश अध्यात्म का विशेष द्वारका पीठ तीर्थ व आश्रमों की है। इसका गोत्र, समप्रदाय, देवता, नदी अलग है। वह सरस्वती सम्प्रदाय में नही आता। यह कहना सरासर गलत और अविवेकपूर्ण है कि शान्तानन्द जी व स्वामी कृष्णबोध आश्रम जी का मुकदमा प्रतिनिधि के रूप में स्वामी स्वरूपानन्द जी के द्वारा लड़ा गया जबकि कृष्णबोध आश्रम जी महाराज ज्योतिष पीठ के मुकदमें में हार गये थे। शाकुम्बरी पीठ, सहारनपुर मे श्री कृष्णबोध आश्रम जी के नाम से है। स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज उनके शिष्य नही है। इसका सम्बन्ध जोशी पीठ व उनसे कैसे हो सकता है?
रामालय ट्रस्ट व राम जन्म भूमि व कांग्रेस की मानसिकता वाले व्यक्ति जो मन्त्रियों, मुख्यमन्त्रियों व कांग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी व बुटा सिंह जैसे मन्त्रियों के साथ फोटो खिंचवाकर व कांग्रेस के टिकट पर इलेक्शन लड़कर कौनसी राम जन्म भूमि व कौनसी गौ-हत्या पर लगभग 60 वर्षों तक न गौ-हत्या बन्द हुई न राम जन्म भूमि पर मन्दिर बना।
9 नवम्बर, 1967 में जब इन्दिरा गांँधी की सरकार द्वारा गौ-हत्या आन्दोलन में सन्तो, महात्माओ, ब्रह्मचारियों व गौ-भक्तों पर लाठियां व गोलियां चलवायी गई थी जिसमें सैकड़ों लोग जखमी हुए और पिचासियों का बलिदान हुआ, इस पर शंकराचार्य जी भी अनशन पर बैठे थे। इस तरह की मानसिकता रखने वाले लोगों से साधु-सन्त, ब्रह्मचारी लोग क्या गौहत्या बन्द कराने, राम मन्दिर बनवाने व गंगा को स्वच्छ व अविरल बनाने के लिए कोई उम्मीद की जा सकती है? आजम खां जैसे लोगों को सम्मानित करना, इन लोगों के विचार मंथन के द्वारा इनकी मानसिकता को प्रदर्शित करता है। अखबारों की सूर्खी बनना मानो इनका उद्देश्य है, इनसे राम जन्म भूमि पर श्रीराम मन्दिर बनवाने या गौ-हत्या बन्द करवाने की अपेक्षा करना निरर्थक है।

इस सत्य संकल्प वाले पवित्र पुण्य कार्य को राष्ट्र सम्मान के अनुरूप उपयुक्त विकल्प निकालें, देश की जनता ऐसे लोगो की मानसिकता को भली भाँति समझती है।

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